बंगाल तथा पूर्वी भारत में विद्रोह – नोट्स हिन्दी में

इस आर्टिकल मे “भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उदय और विकास” पर ‘बंगाल तथा पूर्वी भारत में विद्रोह‘ के बारे मे बताया गया है जैसे – संन्यासी विद्रोह, चुआर तथा हो का विद्रोह, कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह, अहोम विद्रोह, खासी विद्रोह एवं पागल पन्थी तथा फरैजियों का विद्रोह ।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उदय और विकास

1757 के पश्चात सौ वर्षों में विदेशी राज्य तथा उससे संलग्न कठिनाइयों के विरुद्ध अनेक आन्दोलन, विद्रोह तथा सैनिक विप्लव हुए। अपनी स्वतन्त्रता के खो जाने पर स्वशासन में विदेशी हस्तक्षेप, प्रशासनिक परिवर्तनों का आना, अत्यधिक करों की मांग, अर्थव्यवस्था का भंग होना इन सब से भारत के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया हुई तथा उससे बहुत सी अव्यवस्था फैली।

बंगाल तथा पूर्वी भारत में विद्रोह (Revolts in Bengal and Eastern India)

(i) संन्यासी विद्रोह : बंगाल में अंग्रेजी राज्य के स्थापित होने से तथा उसके कारण नई अर्थव्यवस्था के स्थापित होने से जमीदार, कृषक तथा शिल्पी सभी नष्ट हो गए।

1770 में भीषण अकाल पड़ा। उसे तथा कम्पनी के पदाधिकारियों की कठोरता को लोगों ने विदेशी राज्य की ही देन समझा तीर्थ स्थानों पर आने जाने पर लगे प्रतिबन्ध से सन्यासी लोग बहुत क्षुब्ध हुए ।

संन्यासियों की अन्याय के विरुद्ध लड़ने की परम्परा थी और उन्होंने जनता से मिलकर कम्पनी की कोठियों तथा कोषो पर आक्रमण किए। वे लोग कम्पनी के सैनिकों के विरुद्ध बहुत वीरता से लड़े तथा वारेन हेस्टिग्ज एक लम्बे अभियान के पश्चात किए। वे लोग कम्पनी के सैनिकों के विरुद्ध बहुत वीरता से लड़े तथा वारेन हेस्टिग्ज एक लम्बे अभियान के पश्चात ही इस विद्रोह को दबा पाया था। इसी संन्यासी विद्रोह का उल्लेख वन्देमातरम् क रचयिता बंकिम चन्द्र चटर्जी ने अपने उपनयास ‘आनन्द मठ’ में किया है।

(ii) चुआर तथा हो का विद्रोह : अकाल तथा बढ़े हुए भूमि कर तथा अन्य आर्थिक संकटों के कारण मिदनापुर जिले की आदिम जाति के चुआर लोगों ने हथियार उठा लिए। दलभूम, कैलापाल, डोल्का तथा बाराभूम के राजाओं ने मिलकर 1768 में विद्रोह कर दिया तथा आत्म-विनाश (scorched earth) की नीति अपनाई यह प्रदेश 18वीं शताब्दी के अन्तिम दिनों तक उपद्रवग्रसत रहा।

इसी प्रकार छोटा नागपुर तथा सिंहभूम जिले के हो तथा मुण्ड़ा लोगों को भी अपने हिसाब चुकाने थे। उन्होंने 1820-22 तक तथा पुनः 1831 मे कम्पनी की सेना से टक्कर ली तथा यह प्रदेश भी 1837 तक उपद्रवग्रस्त रहा।

(iii) कोल विद्रोह : छोटा नागपुर के कोलों ने अपना क्रोध उस समय प्रकट किया जब उनकी भूमि उनके मुखिया मुण्डों से छीन कर मुस्लिम कृषकों तथा सिक्खों को दे दी गई। 1831 में कोलों ने लगभग 1000 विदेशी अथवा बाहर के लोगों को या तो जला दिया या उनकी हत्या कर दी। यह

विद्रोह रांची, सिंहभूमि, हजारीबाग, पलमाऊ तथा मानभूम के पश्चिमी क्षेत्रों में फैल गया। एक दीर्घकालीन तथा विस्तृत सैन्य अभियान के पश्चात् ही यहां शान्ति स्थापित हो सकी।

(iv) संथाल विद्रोह : राजमहल जिले के संथाल लोगों ने भूमि कर अधिकारियों के हाथों दुर्व्यवहार, पुलिस के दमन तथा जमींदारों तथा साहूकारों की वसूलियों के विरुद्ध अपना शेष प्रकट किया तथा सिंधू तथा कान्हू के नेतृत्व में कम्पनी के शासन का अन्त करने की घोषणा कर दी तथा अपने आपको स्वतन्त्र घोषित कर दिया।

विस्तृत सैन्य कार्यवाही के पश्चात ही 1856 में स्थिति नियन्त्रण में आई। सरकार ने इन लोगों के लिए पृथक संथाल परगना बना कर शान्ति स्थापित की।

(v) अहोम विद्रोह : आसाम के अहोम अभिजात वर्ग के लोगों ने कम्पनी पर बर्मा युद्ध के पश्चात् लौटने का वचन पूरा न करने का दोष लगाया। इसके अतिरिक्त जब अंग्रेजों ने अहोम प्रदेश को भी अपने प्रदेशों में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया तो विद्रोह फूट पड़ा।

1828 में अहोम लोगों ने “गोमधार कंवर” को अपना राजा घोषित कर दिया तथा रंगपुर पर चढ़ाई करने की योजना बनाई कम्पनी के अधिक अच्छे सैन्य बल के कारण ही इसको असफल बनाया जा सका।

1830 में दूसरे विद्रोह की योजना बनी। कम्पनी ने इस पर शान्तिमय नीति अपनाई तथा उत्तरी आसाम (Up- per Assam) के प्रदेश ‘महाराज पुरन्दर सिंह’ को दे दिए तथा कुछ अन्य क्षेत्र भी इन्हें ही दे दिए।

(vi) खासी विद्रोह : कम्पनी ने पूर्व दिशा में जैन्तिया तथा पश्चिम में गारो पहाड़ियों के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने ब्रह्मपुत्र घाटी तथा सिल्हट को जोड़ने के लिए एक सैनिक मार्ग की योजना भी बनाई तथा इसके लिए बहुत से अंग्रेज, बंगाली तथा अन्य लोग वहां भेजे। ननक्लों के राजा तीरत सिंह ने इस हस्तक्षेप का विरोध किया तथा गारो खाम्पटी तथा सिंहपो लोगों की सहायता से विदेशी लोगों को निकालने का प्रयत्न किया।

शीघ्र ही इसने अंग्रेज विरोधी लोकप्रिय आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। 1833 में सैन्य बल से ही अंग्रेज इस विरोध को दबा सके।

(vii) पागल पन्थी तथा फरैजियों का विद्रोह: पागल पंथ एक अर्ध- धार्मिक सम्प्रदाय था जिसे उत्तरी बंगाल के करम शाह ने चलाया था। करम शाह के पुत्र तथा उत्तराधिकारी टीपू, धार्मिक तथा राजनैतिक उद्देश्यों से प्रेरित थे।

उसने जमींदारों के मुजारों (tenants) पर किए गए अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। 1825 में टीपू ने शेरपुर पर अधिकार कर लिया तथा राजा बन बैठा । विद्रोहियों ने गारो की पहाड़ियों तक उपद्रव किए तथा वह क्षेत्र 1840 से 1850 तक उपद्रवग्रस्त बना रहा।

फरैजी लोग बंगाल के फरीदपुर के वासी ‘हाजी शरीयतुल्ला’ द्वारा चलाए गए सम्प्रदाय के अनुयायी थे। ये लोग अनेक धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक आमूल परिवर्तनों का प्रतिपादन करते थे।

शरीयतुल्ला के पुत्र दादूमियां (1819-60) ने बंगाल से अंग्रेजों को निकालने की योजना बनाई । यह सम्प्रदाय भी जमींदारों द्वारा अपने मुजारों पर अत्याचारों के विरोध में था। फरैजी उपद्रव 1838 से 1857 तक चलते रहे तथा अन्त में इस सम्प्रदाय के अनुयायी वहाबी दल में सम्मिलित हो गए।

PDF बंगाल तथा पूर्वी भारत में विद्रोह नोट्स

नीचे “बंगाल तथा पूर्वी भारत में विद्रोह” – Notes PDF है जो PDFinHindi.in द्वारा तैयार किया हुआ है ।

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